नमाज़े-तरावीह क्या है?
नमाज़े-तरावीह सुन्नते मुअक्किदा है। तरावीह की नमाज़ें जमात से पढना, अहले मुहल्ला या गावं के लोगों के लिए सुन्नते कफ़ाया है, यानी अगर कुछ लोग भी गांव या पड़ोस की मस्जिद में तरावीह की नमाज़ें जमआत से अदा नहीं करते हैं, तो वहां रहने वाले सभी लोगों पर मलामत होगी।

तरावीह की नमाज़ों की रकअतों की संख्या का 20 होना, हज़रत उमर (रज़ि0) के अमल से पता चलता है, जिसको सभी सहाबा (रज़ि0) ने अपनाया और बाद में किसी भी ख़लीफ़ा ने इसकी मुख़ालिफ़त (विरोध) नहीं किया। हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रज़ि0) ने रकअतों की तादाद (संख्या) 16 से बढ़ाकर 36 कर दी थीं। इसका मक़सद (उद्देश्य) यह था कि काबा में हर चार रकअत के बाद तवाफ़ किया जाता था; आपने दूसरी मस्जिदों में हर तवाफ़ के एवज़ (बदले) चार रकअतें बढ़ा देना मुनासिब जाना। वरना तरावीह की रकअतें इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शफ़ीई और इमाम अहमद बिन हंबल के नज़दीक 20 ही हैं और इसी को जमहूरे-उम्मत ने इख्तियार किया है। हर चार रकअतों के बाद तरवीहा यानी थोड़ी देर आराम करना और इस दौरान ज़िक्रे-इलाही करना मुस्तहब है।
तरावीह में पूरा क़ुरान ख़त्म करना
तरावीह की नमाज़ों में एक बार पूरा क़ुरान शरीफ़ पढ़ना सुन्नत है। पढ़ने में इसका लिहाज़ होना चाहिए कि मुकतदियों (पीछे नमाज़ पढने वालों) पर बोझ न पड़े और वे ख़ुश-दिली से क़ुरान सुन सकें। क़ुरान इतनी जल्दी- जल्दी नहीं पढ़ना चाहिए कि जिससे नमाज़ में ख़लल (विघ्न) पड़े। हर दो रकअत की शुरुआत में, नीयत करना और तक्बीरे-तहरीमा के बाद और क़ेरात से पहले दुआए-इफ्तिताह (शुरुआती दुआ) (सुबहानकल्लाहुम्ममा वबिहम्दिका .....) पढ़नी चाहिए।